Last modified on 24 अक्टूबर 2009, at 16:04

मो परतिग्या रहै कि जाउ / सूरदास

राग सारंग

मो परतिग्या रहै कि जाउ।
इत पारथ कोप्यौ है हम पै, उत भीषम भटराउ॥
रथ तै उतरि चक्र धरि कर प्रभु सुभटहिं सन्मुख आयौ।
ज्यों कंदर तें निकसि सिंह झुकि गजजुथनि पै धायौ॥
आय निकट श्रीनाथ बिचारी, परी तिलक पर दीठि।
सीतल भई चक्र की ज्वाला, हरि हंसि दीनी पीठि॥
"जय जय जय जनबत्सल स्वामी," सांतनु-सुत यौं भाखै।
"तुम बिनु ऐसो कौन दूसरो, जौं मेरो प्रन राखै॥"
"साधु साधु सुरसरी-सुवन तुम मैं प्रन लागि डराऊं।"
सूरदास, भक्त दोऊ दिसि, का पै चक्र चलाऊं॥


भावार्थ :- `ज्यों...धायौ,' जैसे गुफा से ललकारा हुआ क्रुद्ध शेर झपटकर हाथियों के झुंडों पर दौड़ता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण बड़े-बड़े योद्धाओं पर आक्रमण करते हुए रथ से उतर-कर भीष्म की ओर दौड़े। `हरि हंसि दीनीं पीठि,' श्रीकृष्ण ने हंसकर स्वयं ही पीठ दिखा दी, खुद ही हार स्वीकार कर ली। `मैं प्रन लागि डराऊं,' मैं अपने भक्तों के प्रण से बहुत डरता हूं।


शब्दार्थ :- परतिग्या = प्रतिज्ञा, प्रण। पारथ =पार्थ, पृथा के पुत्र, अर्जुन। भटराउ = योद्धाओं में श्रेष्ठ। कंदर = कंदरा, गुफा। झुकि = झपटकर। दीठी = दृष्टि, नजर। भाखै =कहता है। साधु साधु =धन्य हो। सुरसरी-सुवन =गंगा के पुत्र भीष्म। दिसि =तरफ।