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मो मन राधा-छबि / हनुमानप्रसाद पोद्दार

मो मन राधा-छबि पै अटक्यौ।
मिलत नाहिं, छोड़त न बनत पुनि, रहत सदा ही लटक्यौ॥
प्रथमहिं निरखि सफल भ‌ए लोचन, मन न कतहुँ फिरि भटक्यौ।
सुख-सागर लहरात तबहि तैं, रूप-सुधा-रस गटक्यौ॥
पद-पल्लव उदार सेवन-हित मम मानस अति मटक्यौ।
पद-पराग पा‌ऐं बिनु मो मन-मधुकर कबहुँ न सटक्यौ॥