कोहरे की बढ़ गईं हैं टहनियाँ
मौत का माहौल है
कोहरे की छाँव ऐसी
सूर्य भी निस्तेज है
देह ऐसी गल रही ज्यों
भीग गलता पेज है
आग खोजें, कँपकँपाती हड्डियाँ
मौत का माहौल है
गाँव की पगडंडियों के
स्वप्न हैं फुटपाथ पर
सूर्य घर्षण से उगाना
चाहते हैं हाथ पर
पेट में गीली पड़ी हैं लकड़ियाँ
मौत का माहौल है
राजधानी ओढ़ बैठी
छद्म, छल का आवरण
रिस रहे हैं घाव मन के
हो रहा नैतिक क्षरण
कब खुलेंगी, धूप देने खिड़कियाँ
मौत का माहौल है