मौन का यह पाखी
पँख समेटे
दुबका बैठा है अभी
अपनी ही छाया में
कभी-कभी
बज उठती है
शब्दों की साँकल
इस मौन के भीतर
मौन जिसका द्वार खोलते हुए
डरते हैं
जिसे धान की पकी हुई
बालियों की तरह
टेरते हैं अधरों पर
यह मौन ही है
जो ठेलता हमें
बीच
पगलाई नदी की ओर
यह मौन अनजाने ही पिघल रहा
ज्यों सुबह के चेहरे पर
जाड़े की सलवटों को पिघलाती है
सूरज की
थाप-दर-थाप
धीरे
धीरे