मेरे दोस्त
तुमने मुझे एक ऐसी
पाषाण-शिला समझ लिया
जिस पर तुम
अपनी खुशी के लिए
हर कोण से
निशाना साधते रहो!
क्या इसलिए कि
तुम्हारे हर वार के बाद भी
मैं...
संयत रही/मुस्कराती रही,
हर पीड़ा के ज़ख्म को
सहेज लिया, पर रो न सकी!
सच तो यह है, कि
मेरी विवशता के शब्द
गूँगे हो चुके हैं, पर
क्या मेरी मौन अभिव्यक्ति/
मेरे गीत भी
तुमसे कुछ कह पाने में
असमर्थ रहे हैं...?
शांत बहने वाली नदी के हृदय में
क्या कोई वेग/कोई छटपटाहट
कई तूफान नहीं होता...?
शब्दों की छटपटाहट
तुम न महसूस सके,
तो क्या वे दर्द से रीते रहे...?
ठंडी/नरम ज़मीन की आदी
मेरी भावनाओं को तुमने
जलती/तपती धरती पर
तड़प-तड़पकर जल जाने,
मिट जाने को विवश कर दिया।
मेरे मज़बूर गीत
तुम्हारे समक्ष चीख-चीखकर
स्वयं को अभिव्यक्त
करते रहे, लेकिन
मेरा दर्द
तुम्हें रुला भी न सका!
आखिर क्यों--
झूठे वादों के
तार बाँध-बाँधकर
मेरे विश्वास को
बौना किये दे रहे हो...?