सब का होता है, और आता भी है-
अपना-अपना एक मौसम!
कच्ची, कँटीली झड़बेरी में
आ जाती है षोड़शी के गालों-सी हल्की-हल्की ललाई।
जड़ भी चेतन हो उठते हैं-जैसे
पैंजी, डेलिया।
रूपगर्विता-बँदरिया दर्पण देख सिंगार कर उठती है,
मयूरी थिरक-थिरक उठती है,
अपनी ठूँठी टाँगों की चिंता एक क्षण बिसार!
खरही गाने लगती है
सुर्मा लगाकर, होकर सुर्खरू!
सब मौसम की तलाश में रहते हैं-
देखते हुए अपना-वैदरकॉक।
चरणचम्पीनिष्ठ अँगूठाचूस पुच्छग्राही पिट्ठू,
प्राणि जगत का शिरमौर-बेचारा आदमी-भी
किसी पीड़क तलुए की छाया में-
सुख भोगता है लोमहर्षक, अनिर्वचनीय!
1976