चिंगारी से शर्त लगी है
आंधी से तकरार नहीं है
नहीं पसीजीं
गर्म हवाएँ
रेत हो गए घर सपनों के
एक दूसरे के
कांधों पर
रो लेते हैं सर अपनों के
झंझावातों से अठखेली
करने का त्यौहार नहीं है
है मौसम की
आनाकानी
उतर गए ऋतुओं के तार
हँसकर पतझड़
छेड़ गया है
मधुमासों के साज-सँवार
सुर्ख़ हो गई धवल चाँदनी
लेकिन चीख़-पुकार नहीं है
इतने पर भी
कानों में कुछ
दे जाती संवाद दिशाएँ
दूर कहीं इस
उठापटक में
होंगी फिर अनुरक्त ऋचाएँ
स्थिति अब इन चिकनी-चुपड़ी
बातों को तैयार नहीं है