दिन गरमी के लगते जैसे हों मौसम के फूल
मधु पराग-सी बिखरी मानो उड़ती-उड़ती धूल
कान मरोड़े, फिर यूँ बोले पछुवा हवा बुलाकर —
गरमी को तुम सहना सीखो अपना मन बहलाकर
खिल जाओगे किरण सरीखे सहो सूर्य का शूल
जब तप लेती धरा समूची और सिन्धु भी गहरा
बादल बन उड़ेंलें तो जल भी उड़ा गगन में ठहरा
बरसाता जल जब धरती पर मुस्काता हर कूल
तपन गर वरदान मान लो गरमी लगे मिठाई
मनभावन यह चुहलबाज़ियाँ सूरज करे ढिठाई
सुख-दुख में समान रहता है खिलता कमल बबूल