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मौसम बीमार है / कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह

एक अरसा हुआ
फूलों के पास नहीं गया
न तितलियों को उड़ते हुए देखा
खुले आसमान के नीचे बैठ
बातें नहीं की हरियाली से

झील पर पड़ती छायाएँ
काँप-काँप रह गईं
व्यर्थ हुआ नदी का गाना और रोना
चमकना / शिखरों पर सूरज का
सूरज पर शिखरों का पिघलना
मुँह उधर कभी नहीं किया
बच्चों को लगा रहा
शीत से बचाने में वसन्त
आने का वादा कर
आते-आते रह गया।