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मौसम बोला / मोहन अम्बर

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हवा लुटेरी तरूवर कंगले, शूल उगाती हर गली,
बगिया बतला आज न गाए तो कब गाए कोयली।
मरूथल-से विस्तार हो रहे हैं धरती की प्यास के,
किन्तु निगोड़े मेघ खड़े हैं बन कर ढेर कपास के।
मोर मोरनी से न बोलता ऐसा मौसम आ गया,
ऐसा लगता है कि जमाना सपनों को भी खा गया।
पतझर को प्रियतम कहने की परवशता में है कली,
बगिया बतला आज न गाए तो कब गाए कोयली।
संघर्षों की ओट आदमी ऐसे उम्र बिगाड़ता,
कठिनाई पर क्रोधित होकर अपने कपड़े फाड़ता।
किसी आँख को धीरज देने ख़ुद भी आंसू बन गया,
राग द्वेष के समझौते में उनसे ज़्यादा तन गया।
तन तो स्वार्थ शहंशा लेकिन मन भी करते अर्दली,
बगिया बतला आज न गाए तो कब गाए कोयली।
आज समय की दूकानों पर पोल बजाती ढोल,
मुस्कानों की मँहगी क़ीमत आँकू कौड़ी मोल।
गाते गाने छाती दुखती उठते प्रश्न अनेक,
किन्तु सभी का उत्तर भाई मिलता केवल एक।
बैठ अकर्म रूपैये लेता श्रम तक जाती पावली,
बगिया बतला आज न गाए तो कब गाए कोयली।