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म्हूं के बोलूं / जनकराज पारीक

म्हूं तो कुछ नीं बोलूं
म्हूं तो चुप हूं साहब,
बाहर सूं दीखूं-
भीतर सूं घुप हूं साहब ।
दड़ बोच्यां बैठ्यो हूं
डरतो तलवारां सूं-
मीठो खरबूजो हूं
कट जासूं धारां सूं ।
थे बळती तीळी माचस री
म्हूं तूडी़ रो कुप हूं साहब ।
थे म्हारी किस्मत रा मालक
थे कहदयो सो ठीक।
हुकुम-हज़ूरी गोल-चाकरी
म्हां हाथां री लीक,
चौकस-चतुर फ़ील्डर थे,अर
म्हूं सीदो सो गुप हूं साहब ।