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यक्ष प्रश्न / अश्वनी शर्मा

क्या है आश्चर्य
कभी किया था प्रश्न यक्ष ने
धर्मराज से
आज भी वो
शाश्वत आश्चर्य
साथ है मेरे
लेकिन मैं जानता हूं
कि एक दिन
हो जाने वाली है ये देह
सिर्फ मिट्टी
मेरे अपने
संस्कारित बच्चे
कर देंगे अंतिम संस्कार भी
रेत से शुरू हुआ ये सफर
खत्म हो जायेगा
एक दिन रेत पर ही

किंतु
मैं ढूंढता हूं जब
आश्चर्य क्या ?
क्या ये/कि/मैं नहीं जानता
मैं हो जाने वाला हूं रेत
रेत के इस अनन्त विस्तार में
शायद हो कोई टीला
मेरे नाम का भी
जैसे होते हैं तारे आसमान में
जो पहचानता है अपना टीला
और जानता है
अपना उद्गम और अंत
वो ही पाता है/पार इस रेत के
वरना
उड़ा ले जाती है आंधियां कहीं भी
धराशायी कर देती है विशाल वृक्षों को भी

तो क्या रेत से रेत तक की
इस यात्रा में
कुछ भी ऐसा नहीं जो किया जा सके
क्या सिर्फ डरा जाये?
बैठा जाये निरूदेश्य?
या गुजर जाने दिया जाये
समय को
जो नहीं रूका कभी भी
जो हर पल बनता जाता है अतीत

रेत के मौन को जीते हुए
मैं जब भी हुआ हूं
मौन प्रज्ञा
तभी मैंने जाना है
आदि और अंत के बीच ही
होता है नाटक
नाटक के पात्रों को
जी लिया जिसने
मनोयोग से
वो ही जीता है
नाटक में अनेकों पात्र
नही होते सभी नायक
लेकिन नायक से कम नहीं
कोई भी पात्र
जो जी गया अपनी
भूमिका मनोयोग से
वो ही लड़ पाता है

जान पाता है
तिलिस्म रेत का
रेत फिर उद्घाटित करती है
अपने राज
फिर आंधियां हो
या बगूले
रेत और आदमी का
संबंध अटूट होता है

रेत की जिजीविषा
रेत का हक़ीरपन
रेत का गौरव
और रेत की
शाश्वतता
जान ली जाती है जब

फिर रेत बता जाती है
तेरी यात्रा
मुझ से शुरू और मुझी पे खत्म
ये जान ले
मत भूल ये
और जी जिन्दगी भरपूर।