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यथार्थ / राम शरण शर्मा 'मुंशी'

राह चलते
देखता हूँ — आह
कितने लोग छलते,
बोलते — ज्यों ले रहे हों थाह !
और गहरी मार पर
और भारी वाह !
       जी रहे हैं लोग
            जैसे स्वप्न जलते !