यदि, प्रेम था तुम्हें
समाजवाद से
तो तुम्हे कहाँ मिला था वह
कहाँ पर तुमने मित्रता कर ली थी उससे.......
गलबाहियाँ डाल तुम कब चले थे
उसके साथ.....
मैंने भी उसे ढ़ूँढनें का
किया था प्रयत्न
गन्दे नाले के
गीली मिट्टी पर बसी झुग्गी में............
फुटपाथ पर ठिठुरते
मजदूरों के झुंड में.............
दो टूटे ईंट के बने चुल्हे पर
सुलगती गीली लकड़ी से
काले पड़ चुके बटुले में...........
मुझे भी तो बताओ उसका पता
तुम कहो तो मैं उसे ढूँढू
बहुमंजीली इमारतों में, मॉल्स में
या कि राजपथ पर
वह इस देश नही था....नही है......
कदाचित् नही रहेगा....
आयातित मित्रों के मध्य रहता है वह
तुम्हारे द्वारा बनाई जातिवादी... भाषावादी...
नस्लवादी... सीमाओं पर खड़ा वह
लगाता है अट्टहास
करता है परिहास
तुम्हारा समाजवाद
अपने मित्र फासीवाद से...