Last modified on 3 दिसम्बर 2009, at 16:03

यहाँ की बरसात / नरेन्द्र शर्मा

(१)
गरज रहे घिर मेघ साँवले, नाच रही गोरी बिजली;
बरस रही होंगी ऐसी ही बूँदें घर-घर, गली-गली!
दीवारों से लगे खड़े होंगे चुप छान और छप्पर,
झरती होगी खामोशी से औलाती भी किन-मिन कर!
चौड़ी छाती खोल असाढ़ी पड़ी पी रही होगी आल,
शरमा कर हामी भरती-सी होगी झुकी नीम की डाल!
बरस रहीं बूँदें रिम-झिम कर, तरस रहीं प्यासी आँखें,
मन मारे मन-पंछी बैठा है समेट भीगी पाँखें!
बहुत दूर वह जहाँ भमीरी ताँबे की उड़ती फिरती,
भरी पोखरों में भैसों की जहाँ पल्टनें फट पड़तीं!
वह बरसाती शाम रँगीली, खेतों की सौंधी धरती!
ऊँची ऊँची घास लहरती, बंजर में गायें चरतीं,
बूँदा-बाँदी से दुखयातीं, खड़े रोंगटे, नीला रंग,
पूँछ उठा भर रहीं चौकड़ी, सुते छरहरे चंचल अँग!
एक हुए होंगे जल-जंगल, पर मैं उनसे कितनी दूर!
डोल रहे होंगे पटबिजना जलता जैसे चूर कपूर!
मोद भरे पीले फूलों से खिल बकावली मेड़ों पर--
बैठी होगी; जामुन अँबियाँ लदीं रौस के पेड़ों पर!
कौंध रही बिजली रह रह कर चुँघिया जाती हैं आँखें,
मन मारे मन-पंछी बैठा है समेट भीगी पाँखें!

(२)
वह बरसाती रात शहर की! वह चौड़ी सड़कें गीली!
बिजली की रोशनी बिखरती थी जिनपर सोनापीली!
दूर सुनाई देती थी वह सरपट टापों की पट पट,
कभी रात के सूनेपन में नन्हीं बूँदों की आहट!
आती जाती रेलगाड़ियाँ भी तो एक गीत गातीं!
कहीं किसी की आशा जाती, कहीं किसी की निधि आती!
पार्क सिनेमा सभी कहीं ये बूँदे बरस रही होंगी,
किसे ज्ञात--मेरी आँखें अब किसको खोज रहीं होंगी!
घर न कर सका कभी किसी के मन में मैं जो अभिशापित;
सोच रहा हूँ, अपने घर से भी अब मैं क्यों निर्वासित!
यही महीना, गए साल जब बरसा था जमकर पानी;
रातों रात द्वार पर कामिनि फूल उठी थी मनमानी!
तीव्र गंध थी भरी हृदय में, सहज खुल गईं थीं आँखें!
आज यहाँ मन मारे बैठा मन-पंछी, भीगी पाँखें!
छोड़ समंदर की लहरों की नीलम की शीतल शय्या,
आती थी वह बंगाले से जंगल जंगल पुरवय्या!
झीनी बूँदोंबीनी धानी साड़ी पहने थी बरसात,
गरज तरज कर चलती थी वह मेघों की मदमत्त बरात!
झर लगता था और वहीं पर बूँदें नाचा करती थीं,
बाजे-से बजते पतनाले, सड़क लबालब भरती थीं!
कुरता चिपका जाता तन पर, धोती करती मनमानी,
छप छप करते थे जूते जब, बहता था सिर से पानी!
भरी भरन उतरी सिर पर से, कहाँ साइकिल चलती थी!
घर के द्वारे कीच-कांद थी, चप्पल चपल फिसलती थी!
प्यारी थी वह हुँमस धमस भी, खूब पसीने बहते थे!
अब आई पुरवय्या, आया पानी, कहते रहते थे!
बरसे राम बवे दुनिया--यों चिल्ला उठते थे लड़के,
रेला आया, बादल गरजे, कड़क कड़क बिजली तड़पे!
(कितनी प्यारी थीं बरसातें--हरे-हरे दिन, नीली रातें!
रंग रँगीली साँझ सुहानी, धुली-धुलाई सुन्दर प्रातें!)
आई है बरसात यहाँ भी--आज ऊझना, कल झर था!
होते यों दिन-रात यहाँ, पर अंतर धरती-अंबर का!
यहाँ नहीं अमराई प्यारी, यहाँ नहीं काली जामुन,
है सूखी बरसात यहाँ की मोर उदासा गर्जन सुन!
इन तारों के पार कहीं उड़ जाने को कहतीं आँखें,
पर मन मारे बैठा मेरा मन-पंछी, भीगी पाँखें!