यहाँ भी खिलता है वसन्त
यहाँ इन सूखे धोरों में
जहाँ न तो बर्फ ही चटकती है
न कलियाँ।
हाँ एक चटख है
जो नस-नस में फूटती है
एक लहक
जो देह में गाछ-सी फैल जाती है
और एक माँग
जो बावली हवा-सी
सर पटकती भटकती है
सभी कुछ बाहर की ओर खुलता हुआ
और सभी कुछ को
सीने में दबा लेना चाहती है बाँहें।
(1970)