ना, ना; फेर नहीं आतीं ये सुन्दर रातें, ना ये सुन्दर दिन!
नहीं बाँध कर रक्खा जाता, छोटा-सा पल-छिन।
चढ़ डोले पर चली जा रही, काल की दुलहिन।
साथी, उसी गैल में तुम स्वेच्छा से अपना घोड़ा डाल दो,
यह जो अप्रतिहत संगीत है तुम भी उस पर ताल दो।
यह सुन्दर है, यह शिव है,
यह मेरा हो, पर बँधा नहीं है मुझसे, निजी धर्म के मर्त्य है।
जीवन नि:संग समर्पण है, जीवन का एक यही तो सत्य है।
जो होता है जब होता है तब एक बार ही
सदा के लिए हो जाता है : यही एक अमरत्व है।
क्षण-क्षण जो मरता दिखता है अविरल अन्त:सत्त्व है।
जीवन की गति धारा है यह एक लड़ी है-क्रम तो अनवच्छिन्न है,
हर क्षण आगे-पीछे बँधा हुआ है, इसी लिए पर अद्वितीय है, भिन्न है।
पर मनुष्य से नहीं कहीं कुछ : इसी तर्क से जीवन स्वत: प्रमाण है।
दो, दो, खुले हाथ से दो : कि अस्मिता विलय एक मात्र कल्याण है।
ना, कुछ फेर नहीं आने का, साथी, ना ये दिन, ना रात,
फेर नहीं खिलने वाले हैं
एक अकेली सरसी के ये अद्वितीय जलजात।
इसे मान लो : तदनन्तर यदि रुकना चाहो रुक लो,
विलमाने में रस लो।
या फिर हँसने का ही मन हो तो वह हँसी दिव्य है :
हँस लो।
दिल्ली, 22 जनवरी, 1954