धरती पर उत्ताप भरा है
धू धू कर जल रही धरा है,
नष्टनीड़ निष्प्रभ एकाकी
वन वन भटक रहे हैं पाखी,
अग्निकुंड की अग्निशिखा सी
उष्ण तप्त बह रही हवा है।
सूख गई हैं नदियां सारीं,
छाया सहमी सी बेचारी,
कैसा आश्रय कहां सहारा
फिरता वनचर मारा मारा,
व्याकुल आकुल क्लान्त हवा
प्रखर धूप से तप कर हारी।
पिघली सड़क चिपकता पहिया
नजर खोजती शीतल छैंया,
गुरुतर भार लिये कंधो पर
पथिक भागते जलते पथ पर,
अग्निज्वाल दहके भूतल पर
याद दिलाये सुखकर शैया।