सूख-सूख गए हैं
ताल-तलायी
कुँड-बावड़ी
ढोरों तक को नहीं
गँदला भर पानी ।
रेत के समन्दर में
आँख भर पर ज़िन्दा है भँवरिया ।
यही बची है
जो कभी बरसती है
भीतर के बादलों से
टसकता खारा पानी ।
सूख-सूख गए हैं
ताल-तलायी
कुँड-बावड़ी
ढोरों तक को नहीं
गँदला भर पानी ।
रेत के समन्दर में
आँख भर पर ज़िन्दा है भँवरिया ।
यही बची है
जो कभी बरसती है
भीतर के बादलों से
टसकता खारा पानी ।