दख़ल हो चुका है शहर
कालीन पर फैले शब्दों को समेटो
किले और कविता के मेल की
यह आख़िरी रात है ।
रह गए की माया छोड़
फिलहाल इस जंगल में छुप जाओ
यहाँ बुझी आदिम राख में
अभी पहले गीत की महक है
जंग लगे शब्दों को
खुली हवा में सुखाओ
कवच और तमगे हटा
निर्वसन पड़े रहने दो
उनमें कुख हरापन भर जाए
जंगल का राग
थोड़ी आग
सरसराहट, साँय-साँय
हलचल से भाग
कविता में जीवन बचाने की
यह आख़िरी रात है ।
अंधेरे का रोना छोड़
फिलहाल पकड़ी नदी का यह पाट
शब्दों को उसकी धार में
बिखेर दो
घुल जाए कालिख
छुटे मैल
भर जाए कलकल
तरंग
प्रवाह
इस पत्थर की सान पर घिस
तैयार करो
दफ़्तर के सींखचों से बाहर
कविता को लाने की
यह आख़िरी रात है ।
कितना कहा सभी ने
दरबार नहीं है कविता का घर
कुर्सी नहीं है कवि का आसन
बाज़ार की भीड़ में
गश्त लगाती है वह
ज़रुरी हो तो
जंगल का पेड़
पहाड़ का पत्थर
नदी का प्रवाह
बादल का पंख
बर्फ़ का फ़ाहा बन
शहर में आती है वह
कबूतर के उजले पर हैं ये शब्द
उजास और पावन
बोझ नहीं सहते
बंधक नहीं रहते
घोंसला जल गया तो
आकाश में उड़ो
भर जाए नीलिमा
बहती बयार
विस्तार
वहीं बादलों के ऊपर
इंतज़ार करो
नगर पर निशाना साधने की
यह आख़िरी रात है ।