बिना खून के जो आजादी मिले, उसे मत लेना रे
यह तो कुछ वैसे ही, जैसे तरी तुहिन में खेना रे
यह आजादी बड़ी निकम्मी
स्वतन्त्रता बेमानी है
कोसों दूर सत्य हो जिससे
ऐसी एक कहानी है
युग बीते हैं, युग बीतेंगे, यों ही रो-रोकर जीते
पीते अंजलि भर गंगाजल, खाते चना-चबेना रे
उड़ी न गर्दन, ताज न छीना
रक्त शत्रु का पड़ा न पीना
लाठी खायी, जेल गये थे,
कुछ प्राणों पर खेल गये थे
धरती होना चाह रही थी लथपथ जब रिपु के शोणित से
कायर बनकर हम सुनते थे ‘‘राम रमैना बैना’’ रे
सच्ची आजादी तो सीमाओं-
को छूकर लौट गयी थी
वीरों की बलिदानी गाथा
दिग्दिगन्त ने सुनी-कही थी
काश! सफल होते ‘सुभाष’ तो ये दुर्दिन यों प्राण न लेते
लोलुप पाते काट न यों माता के ‘दोनों डैना्य रे
प्रजातंत्र की बात न पूछो
दिन है या है रात, न पूछो
अस्थिशेष, उस पर भी होते
हैं कितने आघात, न पूछो
पद-पद पर दुशासन पद के मद में चीरहरण करते हैं
बहते-बहते सूख चले हैं द्रुपदाओं के नैना रे