उसभग्न महल के प्रवेश-द्वार का
एक ही स्तम्भ बचा था अब
शीर्ष पर सिंहमुख लिये,
हमने दिवंगत जुड़वा की तरह
दूसरे सिंहमुखी स्तम्भ की कल्पना कर ली
जगह-जगह टूटी थी चहारदीवारी की लय
कहीं भूमिस्थ कहीं धचकी
हमने महल को घेरती
एक विशाल चहारदीवारी की कल्पना कर ली
भीतर बदरंग प्रांगण था
जहाँ कहीं-कहीं उखड़े नाखूनों की तरह थी ज़मीन
और फिर सीढ़ियाँ थीं दो-चार
हमने पूरी सीढ़ी की कल्पना कर ली बिछी कालीनों के साथ
और फिर उस राजगद्दी की, जहाँ तक पहुँचाता था
सीढ़ियों का आरोह
हमने एक छत की कल्पना की
और फिर दायें हाथ से झलते बायीं ओर खड़े
और बायें हाथ से झलते दायीं ओर खड़े
चँवर डुलाते भृत्यों की
हमने भरे-पूरे दरबार की कल्पना की
अमात्यों द्वारपालों ओर विदूषकों की
और उन कवियों की जो दरबार की शोभा थे
जो मधुर कंठ से लय में त्रुटिहीन छन्दों में गाते थे विरुद
भीतर और भीतर हमने अन्तःपुर की कल्पना की
राजा और महिषी के आधिकारिक प्रेम और
रानियों की ईर्ष्या की
महल के पिछवाड़े एक सूखे गड्ढे पर निगाह गयी हमारी
बताया गया यहाँ एक सरोवर था कभी
हमने उसमें जल की और जल में खिले कमलदलों की
कल्पना की ली
और कमलों को कुम्हलाती उन पिंडलियों की
जो उतरती थीं हौले-हौले पानी में अडूबी-डूबी सीढ़ियाँ
और फिर घंटों अभिसारिकाओं के साथ
आवक्ष जलराशि में खेली गयी केलि की
घूमते-घूमते कुछ अस्थि-पंजरों से टकराये हमारे पाँव
जो पशु-पक्षियों के नहीं थे यक़ीनन
हमने एक ऐसे तहख़ाने की कल्पना कर ली
जिसका ताला कभी बाहर आने के लिए खुला ही नहीं
हमने एक कातर फ़रियादी की कल्पना की
उसके मलिन अधोवस्त्रों के साथ
और प्रार्थना में जुड़ी उसकी काँपती हथेलियों की
फरियाद जो
की गयी होगी कोई कर वसूलते कर्मचारी के विरुद्ध
या किसी बाहुबली के
या पड़ोसी के
या फिर राजपुत्र, श्यालक
या अमात्यों के विरूद्ध
हमने एक विशाल फ़रियादी घंटे की कल्पना की
फ़रियाद सुनने के बाद हुए विमर्श में
राजा के न्याय की कल्पना की
अन्याय के विरुद्ध
हाँ, कभी राजा नहीं कर पाया होगा न्याय
कभी अन्याय को ही न्याय मानता रहा होगा
राजा के असफल न्याय या अन्याय की हद की
कल्पना भी कर ले गये हम
लेकिन...
ऐसे राजा के विरुद्ध क्या किया जाय
इसकी कल्पना करना आसान नहीं था
होने को तो व्यवस्था यह भी थी कि
प्रजा को ऐसे राजा को उसी तरह त्याग देना चाहिए
जैसे छिद्रयुक्त नाव को यात्री त्यागते हैं
या फिर रोक देना चाहिए राजा का छठा भाग
या फिर कर देना चाहिए उसे अपदस्थ
लेकिन ऐसी कल्पना की अब कोई गुंजाइश नहीं थी
क्योंकि यह एक तथ्य था
कि राजा को प्रजा ने नहीं
एक दूसरे राजा ने ही अपदस्थ किया था...