यह बढ़ती हुई औद्योगिक संस्कृति
लाचारी को दूर भगाने का
प्रयास ही तो करती है ।
पर मुर्झाए चेहरों को यह गान कहाँ दे पाती है ?
सुबह से शाम तक
मशीन की तरह काम में लगा इंसान
दिनों दिन मशीन बनता जा रहा है ।
अपनों से बात करने तक की
किसी को फुरसत कहाँ ?
दूसरों को क्या कभी करीब पाएगा वह ?
यह औद्योगिक संस्कृति
बिजली की कड़कती चमक है ।
क्षणिक सुख-सुविधाओं की ललक मात्र के लिए
लोग हो रहे हैं पागल ।
आश्चर्य नहीं कि
वे एक दिन अन्दर से बिक जाएँगे
सुख-सुविधाएँ खरीदते-खरीदते ।
मानव दिनों दिन संग-दिल बनता जा रहा है ।
रुपयों के लिए वह क्या-क्या नहीं करता ?
यहाँ भोग-लिप्सा के शोले हैं;
यहाँ कम्प्यूटर के आँकड़ों और
तथ्यों के जमघट हैं;
प्रोमोशन की,
हड़ताल की,
और धोखाधड़ी की चर्चाओं में
कार्य के महत्त्व का घटना आम बात हो गई है ।
सवाल देश का नहीं ।
सवाल शांति, स्नेह, समता का नहीं ।
सवाल व्यक्तिगत स्वार्थ का है ।
संबंधों में दरार पड़ गई है;
स्त्री-पुरुष सभी बातों में
व्यावसायिक अधिक होते जा रहे हैं ।
तलाक अब तो मामूली बात हो गई है ।
टूटते परिवार के मलवे के नीचे
दबे जा रहे हैं लोग
पर इस अपराध का बोध किसे है ?
यहाँ आदमी आदमी के लिए आँसू नहीं बहाता;
यहाँ करुणा की गंगा नहीं बहती;
यहाँ संवेदना का दर्द नहीं होता;
यहाँ पत्थर ही पत्थर होते हैं;
यहाँ लोहा ही लोहा दीखता है ।
इन्हीं पर तो औद्योगिक संस्कृति की
मज़बूत बुनियाद पड़ी है ।