क्या है यह
जो मिलने ही नहीं देता पानी को पानी से
अग्नि को अग्नि से, माटी को माटी से
देह को देह और प्राण को प्राण से
क्या है - क्या है यह अदृश्य झिल्ली-सा
जो सिर्फ़ विलग करता है
हर चीज़ को हर चीज़ से
याद है तुम्हें
जब छू लेते थे हम तुम
एक-दूसरे की उपत्यका में उदय होते सूर्य को
जब हमारी आँखें इस क़दर उलझी रहती थीं आपस में
कि कहीं कुछ बचता ही नहीं था अनदेखा
एक-दूसरे की अस्थियों में छुपे खनिज,
मज्जा में डूबी नीहारिकाएँ
उत्तप्त धातुओं-सी नील-लोहित इच्छाएँ
एक-दूसरे की ही नहीं बल्कि
सारे संसार की निगूढ़तम संवेदनाओं को
स्पर्श कर लेते थे हम,
धातुओं में प्रवाहित बिजली की तरह
बहते रहते हम अगाध-संसार के अन्तराल में निर्बाध
इतिहास को अपने सामने से गुज़रते देखकर
तब लगता था
देखो-देखो वह चला जा रहा है समय-सागर में
उलटता-पलटता संसार का सबसे बड़ा तिमिंगल
संसार की सबसे छोटी इच्छा लिये हुए
और अब... अब...
क्या है यह, जो इतिहास तो इतिहास,
छूने नहीं देता हमें हमारा ही वर्तमान !