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यह खिलदंड़ मन / विमल राजस्थानी

यह जगत की धूप-छाया
यह खिलंदड़ मन
इन्द्रधनुषी रंग में निखरा
जटिल जीवन
कौंधती चिनगारियाँ,
आकाश के तारे
भोर की किरणें-निशा-के
आ गयीं द्वारे
बादलों में खो गया लो
ज्योति का अम्बार
पी गया नभ पौ फटे ही
चाँद की मधु-धार
कौंधती विद्युत कड़ककर,
गरज उमड़े मेघ
तृषित धरती के हृदय में
भर रहे उद्वेग
और होना चाहते शीतल-
पुलक हिम शैल
धुल निखरने को प्रतीक्षित
चीड़-वन की गैल
झर रहे पीतभा पत्रों से
सुरीले स्वन
खेलता, अठखेलियाँ करता
खिलदंड़ मन।