Last modified on 10 नवम्बर 2009, at 10:40

यह चैत / आलोक श्रीवास्तव-२

 
चैत फिर आया है
खिले हैं वन में पलाश
गूंजता है सारी दोपहर
बाग में कोयल का गान
मूक दिशाओं के कंधे पर
पड़ा है उनींदा आकाश

हवाओं में उड़ते हैं
झरे सूखे पत्ते
डोलती है
टहनी नीम की

देखो तो
यह कैसा चैत आया है
इस बार ?