यह जगत् रचता है शब्द पर शब्द
प्रकाश जैसी तीव्रता से
और मुझे होता है कितना कम आभास
अपनी गति का
और ये उर्जाएँ, कितना आभारी हूँ मैं तुम्हारा
बुझने लगते हैं जब स्त्रोत मेरे
आकर देते हो रोशनी मेरे छोटे से कणों में भी
और मुझे तो चाहिए थोड़ी सी रोशनी भर
जिधर भी जाती हों मेरी आँखें
और बाकी सब तो है सूरज का असंख्यी तारों का
गूँजती है हँसी इन तारों से भी कभी-कभी
जब सब एक होकर मिल जाते हैं
और यह हँसी ही बतलाती है
खेल रही है सभ्यता अपना खेल
और होता हूँ जब मैं अकेला
केवल मुस्कुराता हूँ
जैसे सिखाया गया नहीं कभी मुझे हँसना ।