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यह जगह काफ़ी है / मोहन राणा

दो पतों के बीच लापता भूगोल में
लिख बंद कर दिया पढ़ना मैंने चेहरा एक नाम दूसरा फिर तीसरा,
मेरी तुम्हारी कहानी रह गई किसी बात पर
सूखते कपड़ों सी उलट अपनी देह को टटोलती हवा में
हमेशा की तरह इस बार भी शेष अनेक
उन पन्नों में एक आज फिर
उलटता रखता
उठ कर चल देता

सर्द मौसम मफ़लर गले में झूलता
मुड़ के कुछ देखते जेब टटोलते
कि पहचाना नहीं जाता हूँ ख़ुद ही
सड़क से एक गली में हवा होते
सरे आम से दरवाज़े पार कहीं,
घर बार, आंगन एकांत में

उम्मीद की शक्ल में डर हर क़दम निहित
मेरे साथ है किसी पर्ची पर लिखे आगमन और प्रस्थान की तरह,
तो अब बंद कर दिया
यहाँ वहाँ छायाओं में कद नाप अपने पाँवों को बाँध कर भागना,
यह जगह काफ़ी है खड़े होने छुपने
और लेट कर चुपचाप
हरी दूब हो जाने के लिए