होती विदग्ध अंतर की
ज्वाला से उर-वैतरणी।
जिसकी ऊष्मा से भीगी,
नयनों की उर्वर धरणी।
कुछ नए सपन उगते हैं,
आशा नव पल्लव जनती।
सागर-तट-नियति पटों पर
रेखाएं मिटती-बनती।
जब-जब भी अवसर आया,
जीवन में सुमन खिलाने,
यह निठुर नियति है लगती
पौधों के मूल हिलाने।
आरंभ करें उपक्रम को
उपवन से जब संगम का।
अंतर-भावों की जलधि में
उठता मैनाक अहम का।
मन विश्वामित्र का हठ है,
जीवन त्रिशंकु-सा अटका।
हर पल इक युद्ध सदृश है
पर पता नहीं प्रतिभट का।
दिन-दिन पर बाले सूरज,
पर भास नहीं होता है,
जाने किस श्याम विवर में
जीवन-प्रकाश खोता है।
ग्रहता ज्योतित आशा को
अज्ञात तिमिर का दानव,
अपने ही व्यूह के आगे
नतमस्तक होता मानव।
सुस्मिति के अवगुंठन में
दुःस्वप्न शयन करता है।
कितना झूठा जीवन का
अनुवाद नयन करता है।
ऐसा न हो कि मन-उपवन
ढलता जाए मरुथल में।
ढल जाए भरी दोपहरी
जीवन की, अस्तांचल में।
रथ है पर रथी विरथ है,
धनु है, शिंजिनी शिथिल है।
समरांगण की चौसर पर
अब दांव लगा तिल-तिल है।
स्वर अपने कभी डराते,
औरों के स्वर से हटकर।
उर का प्रतिरोध, स्वरण है
पोथी-पत्री रट-रटकर।
यह सच में बड़ा मनोहर
सुंदर संसार तुम्हारा।
मेरा अंतर-अनुशासन
इसके शासन से हारा।
प्रचलन उन्मुख प्रतियोगी
प्रतिपग प्रतिकूल प्रवर्तन।
प्रण प्रतिभट, प्राण प्रलय-सा
प्रस्तुत करता है नर्तन।
यह शर्तों की दुनिया है,
पांवों का पाश यही है।
धरती तो दे दी लेकिन
ऊपर आकाश नहीं है।
यह प्रेषित पग जिस पथ से
आया इस दूर विपथ पर।
पदचिन्ह मेटते तक, फिर
लो फिरा विचित्र सुरथ पर।
तोड़ो विधि, शिव-धनु जैसे,
बहती सरिता पलटा लो।
यह जीवन-पत्र अलक्षित
ऐ प्रेषक! फिर लौटा लो।