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यह तट अब छोड़ / रामगोपाल 'रुद्र'

यह तट अब छोड़, हठीले, मन के माँझी!

लहरों का लोल निमंत्रण
कब से मग जोह रहा है,
इस ठौर गिरा लंगर ही
अब तुझको मोह रहा है;
बालू मत सींच, पनीले, मन के माँझी!

पहचान भरम आँखों का,
यह सिंधु सुनील नहीं है;
रम जाय कहीं पथ में ही,
पंथी का शील नहीं है;
झूठी यह लाज, लजीले, मन के माँझी!

इस मुग्ध उपासना से क्या?
यह कैसी तत्परता है!
रत्‍नाकरगम्य तरी में
तट की सीपी भरता है!
अब तो पथ चेत, नशीले, मन के माँझी!