Last modified on 16 जुलाई 2015, at 15:23

यह तुम्हारे नयन हैं / दयानन्द पाण्डेय

पचास पार की तुम
और जाने कितने समंदर सोखे
तुम्हारी यह आंखें

जैसे बिजली का एक नंगा तार हैं
कि तुम्हारी आंखें हैं

इस उम्र में भी
आग बन जाती हैं
तुम्हारी आंखें

यह समंदर, यह आग
यह बिजली का नंगा तार
यह तुम्हारे नयन हैं
या नयनाभिराम कोई भवन

तुम्हारी इन भोली , मासूम
और बेचैन आंखों की तपन भी
महसूस करना
खुद की आग में दहकना है

आख़िर यह कौन सा सूर्य है
जो तुम्हारी आंखों को
इतना दहकाता है
कि तुम्हारी आंखें
बिजली का नंगा तार बन जाती हैं
और तुम मृत्यु मांगने लगती हो

मृत्यु मुक्ति का आख़िरी रास्ता है

तो तुम मुक्ति चाहती हो
खुद से कि
अपनी आंखों से
आंखों के अंगार से
या कुछ और है

मृत्यु तो अस्सी पार मेरी मां भी मांगती है
कहती है कि बहुत जी चुकी
सारे अरमान पूरे हो गए
सारे सुख पा लिए
पर अब क्यों जी रही हूं
वह खुद से सवाल करती है
और जवाब तलाशती कहती जाती है
भगवान न जाने कितनी उम्र दे दिए हैं मुझे  !

लेकिन जीवन से भरी तुम्हारी आंखों में
ममत्व का जो एक कटोरा है न
वह बहुत हुलसाता है
ऐसे गोया यह आंखें न हों तुम्हारी
एक शिशु हों
सुबह-सुबह दूध भात का कटोरा गोद में लिए

समुद्र सी शांत आंखों में दूध का कटोरा जैसे उफना जाता है
और मन होता है कि
गौरैया बन जाऊं
गौरैया बन कर तुम्हारी आंखों में ही
एक घोसला बनाऊं
घोसला बना कर उस में बस जाऊं
शिशु बन जाऊं
दूध भात खाऊं
खिला दो न

तुम्हारी आंखों को
तकलीफ तो नहीं होगी

चोंच भर दाना
बूंद भर पानी
और यह मेरा पंख फैलाना

कितनों को टीस देता है

आकाश को तो टीस नहीं होती
मेरा उड़ना उसे सुहाता है
लेकिन बिजली के
खुले इन नंगे तारों को
नहीं सुहाता

इसी लिए मैं तुम्हारी आंखों में
एक घोसला बनाना चाहता हूं

लेकिन तुम्हारी आंखें भी तो बिजली का नंगा तार हैं
और बिजली का नंगा तार
दोस्ती में छुएं या दुश्मनी में
जल जाना ही है ,मर जाना ही है

अपनी इन भोली , मासूम
और बेचैन आंखों की तपन में
जलते आकाश के इस सूर्य को
थोड़ी छांह दो न
थोड़ा विश्राम दो ना !

तुम्हारी इन समुद्र सी गहरी आंखों की सिलवट
देख कर पूर्णिमा की चांदनी मन में उतर जाती है
कहीं बहुत गहरे

तुम्हारी शांत आंखों में बारूद भरी बेचैनी देख कर
जैसे शरद भीतर उतर आता है
मन रजाई बन जाता है

मन में ढेर सारे चित्र बनने लग जाते हैं
जैसे चांद पर वह एक चरखा कातती औरत
या कि उस का भरम
कि कुछ भी नहीं है
न औरत , न चरखा , न कातना, न कोई चित्र

तुम्हारी समंदर सी गहरी इन आंखों के भीतर
हलचल बहुत है
उथल-पुथल बहुत है
शांत दिखने वाले इस समंदर में
बाकी सब है
एक शांति नहीं है

गौरैया का घोसला
हिल रहा है
तेज़-तेज़

तो क्या घोसला
बनने और बसने से पहले ही
उजड़ रहा है

तुम्हारी आंखों में बसा
यह कौन सा समंदर है
यह कौन सी टीस है
कि एक घोसला बन रहा है , उजड़ रहा है
निर्माण और ध्वंस
साथ-साथ
कहीं ऐसे भी कोई नीड़ बनता है
किसी आंख से कोई ऐसे भी उजड़ता है

यह मेरा
चोंच भर दाना
बूंद भर पानी
और यह मेरा पंख फैलाना
तुम्हारी आंख में बसे समंदर को भी
क्यों खल रहा है

क्यों खल रहा है
तुम्हारी आंखों में
मेरा बसना
और मेरा जीना

क्या तुम नहीं जानती
कि तुम्हारे यह नयन हमारा भवन हैं
नयनाभिराम
अपलक खड़ा मैं इस में जीता हूं
और तुम मुझे देवता बना देती हो
अपनी आंखों को
अपलक निहारने
के जुर्म में

सुनो
मुझे देवता मत बनाओ

गौरैया की ही तरह
उड़ने और बसने दो
अपने इन निर्दोष नयनों में

शायद भीतर-भीतर
बहुत कुछ घट रहा है
तुम्हारी आंखों के पार
समंदर सा सवाल लिए
आकाश सा फैलाव लिए

जो भी हो
इस घोसले को बचा लो न

मुझे उड़ने मत दो न
मन की रजाई ओढ़ लेने दो
थक बहुत गया हूं
ओढ़ कर सो लेने दो !

[17 नवंबर, 2014]