यह द्युलोक मधुमय है, मधुमय है पृथ्वी की धूलि यह
अपने अन्तर में ग्रहण किया है मैंने
इसी महामन्त्र को,
चरितार्थ जीवन की वाणी यह।
दिन पर दिन पाया था जो कुछ भी उपहार सत्य का
मधु रस में क्षय नहीं कभी उसका।
तभी तो यह मन्त्र वाणी ध्वनित हो रही है मृत्यु के शेष प्रान्त में
समस्त क्षतियों को मिथ्या कर अन्तर में आनन्द विराजता।
शेष स्पर्श ले जाऊंगा जब मैं इस धरणी का
कह जाऊंगा, ‘तुम्हारी धूलि का
तिलक लगाया मैंने भाल पर,
देखी है ज्योति नित्य की, दुर्योग की माया की ओट में।
सत्य का आनन्द रूप
उसी ने तो धारण की निज मूूर्ति इस धूलि में-
उस धूलि ही करता प्रणाम मैं।
‘उदयन’
प्रभात: 14 फरवरी, 1941