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यह धूप दिसम्बर की / ओम निश्चल

यह धूप दिसम्बर की

यह दुपहर की वेला
ठिठुरन के इस मौसम में ।
दिन का रूप सँजो लें हम,
कुछ धूप सँजों लें हम ।
अपने कोटों की जेबों में कुछ धूप सँजो लें हम ।
 
यह धूप गुनगुनी कितनी दुर्लभ है,
कितने दिन बाद आज छज्जे पर आई है,
लो खेल रहे अँजन खँजन चौबारे में,
फिर युवा हुई देखो ऋतु की तरुणाई है ।
 
कुछ देर ज़रा बैठो
कुछ गरमा-गरम पियो,
जीवन के इस क्षण को
तुम मन से ज़रा जियो,
मौसम के इस दीवानेपन का
रूप सँजो लें हम ।
अपने कोटों की जेबों में कुछ धूप सँजो लें हम ।
 
यह धूप सभी के लिए बराबर है,
मौसम की चोटें, प्यार बराबर है,
झिलगी खटिया पर भी उसकी रहमत,
निर्धन-कुबेर सबके हित प्यार बराबर है ।
 
यह अभी यहीं है
अभी कहीं होगी,
बादल में, कोहरे की
बाहों में गुम होगी,
खोने के पहले इसकी गरमाहट,
इसकी अनुपम सौगात सँजो लें हम ।
अपने कोटों की जेबों में कुछ धूप सँजो लें हम ।
 
लो बहुत दिनों के बाद दिखी गौरैया है,
यह सब बच्चे-बूढ़ों की लगती अय्या है,
कोयल भी कनखी से है जैसे देख रही,
बेसुरे समय में केवल वही गवैया है ।
 
यह धूप कर रही
जैसे अठखेली,
सूरज की किरणें
लगती अलबेली,
इससे पहले वह फिर मुण्डेर पर हो
सूरज की थोड़ी ऑंच सँजो लें हम ।
अपने कोटों की जेबों में कुछ धूप सँजो लें हम ।