जो न ठीक से प्रेम कर पाए न क्रांति
वे प्रेम और क्रांति को एक तराजू पर तोलते रहे
बताते रहे कि प्रेम भी क्रांति है और क्रांति भी प्रेम है
कुछ तो यह भरमाते रहे कि क्रांति ही उनका पहला और अंतिम प्रेम है।
कविता को अंतिम प्रेम बताने वाले भी दिखे।
प्रेम के नाम पर शख्सियतें भी कई याद आती रहीं
मजनूं जैसे दीवाने और लैला जैसी दुस्साहसी लड़कियां
और इन दोनों से बहुत दूर खड़ा, शायद बेखबर भी,
अपना कबीर जो कभी राम के प्रेम में डूबा मिला
और कभी सिर काटकर प्रेम हासिल करने की तजबीज़ बताता रहा।
न जाने कितनी प्रेम कविताएं लिखी गईं, न जाने कितने प्रेमी नायक खड़े हुए
न जाने फिल्मों में कितनी-कितनी बार, कितनी-कितनी तरह से, कल्पनाओं के सैकड़ों इंद्रधनुषी रंग
लेकर रचा जाता रहा प्रेम।
लेकिन जिन्होंने किया, उन्होंने भी पाया
प्रेम का इतना पसरा हुआ रायता किसी काम नहीं आया
जब हुआ, हर बार बिल्कुल नया सा लगा
जिसकी कोई मिसाल कहीं हो ही नहीं सकती थी
जिसमें छुआ-अनछुआ
जो कुछ हुआ, पहली बार हुआ।