देखा, दिल में प्यार नहीं है,
यह मेरा घर-द्वार नहीं है ।
मेरे घर की बात अलग थी
दिवस अलग था, रात अलग थी
जो कुछ था, सब अपना-सा था
नहीं वहाँ कुछ सपना-सा था
चलता था श्रम-सीकर-चक्का
क्या घर मिट्टी, क्या घर पक्का
मेहनत पर विश्वास सभी का
एक नहीं क्षण फीका-फीका
जो जैसे थे, सब जीते थे
फटे भाग्य को मिल सीते थे
भूखे अम्मा कभी न सोई
दादी कभी नहीं थी रोई
दादा थे कुछ कड़े-रोबीले
लेकिन जैसे बाँस लचीले
वैसे ही कुछ पिता दिखाते
बहुत दे गये जाते-जाते
बाप का पूत परापत घोड़ा
नहीं बहुत, तो थोड़म-थोड़ा
आखिर टूट गई यह वानी
चादर यह तो फटी-पुरानी
साबुत इक भी तार नहीं है
यह मेरा घर-द्वार नहीं है ।
घर के पीछे का वह पाकड़
एक अकेला गाँव का धाकड़
सौ मजदूरों का छायाघर
बाट-बटोही थे न्योछावर
सौ किस्मों की चिड़ियाँ आतीं
सौ किस्मों के राग सुनातीं
अद्भुत था वह अपना पाकड़
लिए समाधि, निश्चल औघड़
डाली उसकी, खुली जटाएं
कहाँ रूप वह जाकर पाएं
गिरते आशीष-से पत्ते थे
सौ वर्षों का था, सुनते थे
देवदूत था, ऋषि का वंशज
था मृदंग वह, बीन-पखावज
सबके जीवन का जीवन था
भरे जेठ में श्यामल घन था
आज वहीं पर सन्नाटा है
कोमल गालों पर चाँटा है
गंध धूप की चितागंध है
जड़ें जहाँ थीं, खाई-खंद है
प्राणों का आधार नहीं है
यह मेरा घर-द्वार नहीं है ।
नदी पार का वह लघु पर्वत
शिव-समाधि-सा स्थिर-संयत
एक पाँव पर खड़ा तपस्वी
अनदेखा अद्भुत वह योगी
पुण्य देव का भू पर संचित
आदि सृजन का रूपक मंचित
धरती की वह कथा पुरातन
पाप-अनय से परे सनातन
अपने गाँव का भोले शंकर
वर्षा का जल, गंगा झर-झर
शिलाखंड वे जटा-जूट-से
श्याम पड़ा था कालकूट से
कल सपने में मैंने देखा
कोई खींच गया था रेखा
देवयज्ञ की बची वेदिका
और न अक्षत, नीर कहीं था
भागा आया शहर छोड़ कर
पल में सौ-सौ कोस दौड़ कर
झूठ नहीं; वह सच ही निकला
आँसूµगंगा, कोशी, कमला
फिर भी हाहाकार नहीं है !
यह मेरा घर-द्वार नहीं है ।
पुरखे का वह कुँआ-चभच्चा
बचा हुआ ज्यों खाई-खच्चा
व्याकुल हैं सब डोर-मवेसी
पनिहारिन उससे भी बेसी
खाली मटकों में इतना जल
गिरे, गाल पर, आँसू-काजल
नहीं दिखा, इक भरा कलस हो
पके हुए फल में भी रस हो
दौड़ रही थी प्यास अभागन
मिट्टी का तन, मिट्टी का मन
रक्त देह का पानी-पानी
नौड़ी हो गई नद्दी रानी
सूखे घाटµघटेसर रोता
उसका बेटा, उसका पोता
पदचिन्हों-सी दिखी चुआँड़ी
मंदिर में यह कैसी फाँड़ी ?
कुआँ-नदी-सर रेत-रेत है
लोककथा का खड़ा प्रेत है
जो जल है, वह कूप है गहरा
उस पर भी है यम का पहरा
इस दुःख का कुछ पार नहीं है
यह मेरा घर-द्वार नहीं है ।
कहाँ रोज की ईद-दीवाली
अब तो साल भी खाली-खाली
भक्ति का वैभव है उतरा
जो कुछ बलशाली; वहµपतरा
चंदे का ठेका है चमचम
दुखिया के दुःख पर है बमबम
पड़ी तिजोरी तहखाने में
शान सभी कीµबन जाने में
बुझी आरती की थाली है
सिक्कों की लगती प्याली है
एक नया बाजार सजा है
भक्ति का व्यापार सजा है
छठ में कद्दू सौ रूपये का
परवैतिन सब हक्का-बक्का
झिंगली जितिया में सोना होे
बोलो दुखियारिन का क्या हो
दीवाली अब धनतेरस है
दीप सजाने में क्या रस है ?
कनक-रजत का रक्षाबंधन
देख चकित हैं घर के ब्राह्मण
सभी अस्त्रा से सजी भुजाएं
फिर क्यों कंपित दशो दिशाएं
शरत सिहरती शिशिर-माघ-सी
रज से पूरित धवल आरसी
वाणी का शृंगार नहीं है
यह मेरा घर-द्वार नहीं है ।
खेत बने हैं कट कर क्यारी
नागफनी की है फुलवारी
बासमती की गंध उड़ गई
संकर की ही भीड़ जुड़ गई
हरित क्रांति के मेले में गुम
हल, हलधर से लेकर हम-तुम
खाद जहर है, दवा जहर है
मिट्टी पर यह घोर कहर है
खेती यह कैसी नवीन है
गंधहीन है, स्वादहीन है
गुण से रहित, भार से भारी
इस प्रसून का मन है आरी
हैं तो सभी पुरानी फस्लें
लेकिन बीज विदेशी नस्लें
देशी देशनिकाला है अब
मंदिर पर ही ताला है अब
तब प्रसाद क्या हमें मिलेगा
कैसे तन का फूल खिलेगा
रोग-राग का भोग-भाग है
भोजन पर यह रखी आग है
बचने का उपचार नहीं है
यह मेरा घर-द्वार नहीं है ।
नहीं लगीं ऋतुएं अपनी-सी
मौसी या माँ की ममता-सी
जेठ लगा, अनतपा, तपा-सा
सावन में है घिरा कुहासा
भादो रह गया प्यासा-प्यासा
पूस माघ भी था उबला-सा
आईं ऋतुएं, पता न पाया
अन्धेरे की जैसे छाया
मौसम का कैसा मिजाज है
कभी नहीं था, जो कि आज है
दिन है धुआँ-धुआँ-सा काला
मीरा को ज्यों विष का प्याला
जहर हवा में घुली हुई है
यम से चुपचुप मिली हुई है
जाने कब यह खुला दगा दे
साँसों पर पहरा लगवा दे
ऐसी क्यांे लगती है रातें
लंका में रावण की बातें
आई वर्षा, शरत सो गई
धरती की निधि सकल खो गई
काँटे हैं, कचनार नहीं है
यह मेरा घर-द्वार नही है ।
मेरा घर था फूलों का घर
कबिरा का वह ढाई आखर
वर्षा कजरी गा जाती थी
शरत सवासिन आ जाती थी
छठ भर रह जाता हेमंत था
गाँव भर का पाहुन वसन्त था
आते ही सज जाते ढोलक
झाल-मंजीरा का दिल धक-धक
रागों का मन रस जाता था
मन में बरसों बस जाता था
पूर्वी, चैता, वंशी, मादल
चूड़ी, कंगन, घुंघरू, पायल
विसुआ, घाँटो, जितिया, फगुआ
फगुनाहट वह पुरबा-पछुआ
सब अपने थे, अपनों जैसे
अब लगते हंै सपनों जैसे
पेड़ नहीं हैं अमलतास के
वृक्ष कटे हैं सब पलास के
कौहवा, पीपल, बरगद, पाकड़
सागवान की अंगद-सी जड़
देवदारु छतनार नहीं है
यह मेरा घर-द्वार नहीं है ।
बाँधों पर है उगी कटैया
है बबूल की ता-ता थैया
कहाँ गई अपनी बँसबिट्टी
अमराई ने कर ली कुट्टी
कोयल, मैना, काग, पड़ोकी
फुनगी पर पाँती बगुलों की
सुग्गा, सारस औ सिरपोटरी
हारिल, हंस, बया की कोठरी
कहाँ जा बसे, किन देशों में
या कि मिले जा अवशेषों में
नहीं विचरते मिले जटायु
इतनी छोटी नहीं थी आयु
कहाँ गया वह खड़ा शिवाला
कौन वहाँ वह कोठीवाला
गुड़झिलिया पैकेट में पाई
कीमत थी ज्यों सेर मलाई
जो कुछ पाया सीलबन्द था
आटा ही क्या, सकरकन्द था
इस दुख का उपचार नहीं है
यह मेरा घर-द्वार नहीं है ।