Last modified on 29 अक्टूबर 2017, at 21:38

यह वसंत की रात / कुमार रवींद्र

यह वसंत की रात
हवाएं महक रहीं हैं मद्धिम-मद्धिम
 
छत पर हम-तुम
और दूर से
गंध आ रही किसी फूल की
औचक छू जाना उँगली का
याद आ रही उसी भूल की
 
यह वसंत की रात
हो रही उधर फागुनी रिमझिम-रिमझिम
 
रात वही यह
पंचपुष्प खिलते जब गुपचुप
अँधियारे में
संज्ञाएँ तैरतीं ताल में हैं अमृत के
और कभी पिघले पारे में
 
यह वसंत की रात
गायें हम देह-राग मिलकर फिर आदिम