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यह संभव नहीं / गोपालदास "नीरज"

पंथ की कठिनाइयों से मान लूँ मैं हार-यह संभव नहीं है।

मैं चला जब, रोकने दीवार सी दुनिया खड़ी थी,
मैं हँसा तब भी, बनी जब आँख सावन की झड़ी थी,
उस समय भी मुस्कुराकर गीत मैं गाता रहा था,
जबकि मेरे सामने ही लाश खुद मेरी पड़ी थी।
आज है यदि देह लथपथ, रक्तमय पग, कंटकित मग,
फ़ेंक दूँ निज शीश का मैं भार – यह संभव नहीं है।
पंथ की कठिनाइयों से मान लूँ मैं हार- यह संभव नहीं है..

चल रहा हूँ मैं, इसी से चल रहीं निर्जीव राहें,
जल रहा हूँ मैं, इसी से हो गई उजली दिशाएँ
रात मेरी आँख का काजल चुरा कर ले गई है,
छीनकर उच्छवास मेरे बन गईं आँधी हवाएँ,
आज मेरी चेतना ही से कि जब चेतन प्रकृति है,
मैं बनूँ जड़ धूल का आधार- यह संभव नहीं है।
पंथ की कठिनाइयों से मान लूँ मैं हार- यह संभव नहीं है..

पूछती है एक मुझसे प्रश्न फ़िर-२ सृष्टि सारी-
‘क्या तुम्हारी भाँति ही व्याकुल पथिक! मंजिल तुम्हारी?’
कौन उत्तर दूँ भला मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ,
राह पर चलती हमारे साथ ही मंजिल हमारी,
आज तम में वह अगर ओझल हुई है लोचनों से,
मैं करूँ उसकी न सुधि साकार- यह संभव नहीं है।
पंथ की कठिनाइयों से मान लूँ मैं हार- यह संभव नहीं है..

मैं मुसाफ़िर हूँ कि जिसने है कभी रूकना न जाना,
है कभी सीखा न जिसने मुश्किलों में सर झुकाना,
क्या मुझे मंजिल मिलेगी या नहीं- इसकी न चिन्ता,
क्योंकि मंजिल है डगर पर सिर्फ़ चलने का बहाना,
और तो सब धूल, पथ पर चाह चलने की अमर बस,
मैं अमर पद का न लूँ अधिकार- यह संभव नहीं है!
पंथ की कठिनाइयों से मान लूँ मैं हार- यह संभव नहीं है..

कर्म रत-जग, हर दिशा से कर्म की आवाज आती,
काल की गति एक क्षण को भी नहीं विश्राम पाती,
मैं रुकूँ भी तो मगर यह रास्ता रुकने ना देगा,
राह पर चलते न हम ही, राह भी हमको चलाती
आज चलने के लिए जब धूल तक ललकारती है-
पंथ की कठिनाइयों से मान लूँ मैं हार- यह संभव नहीं है।