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यह सपनों की नगरी / कुमार रवींद्र

धूप ढली
लोग घरों से निकले
         यह सपनों की नगरी
 
दूर-दूर तक फैले
महलों के साये हैं
शीशों की बस्ती में
अक्स सभी लाये हैं
 
बाहर से दिखते हैं
सब उजले
      यह सपनों की नगरी
 
अनजाने चेहरे हैं
बंद हैं लिफाफों में
सूरज को ढाँक रहे
बर्फ के लिहाफों में
 
ऊपर से
चमकीले हैं पुतले
     यह सपनों की नगरी
 
शामिल हो रहे रोज़
सड़कों की भीड़ में
उड़ने की बारी है
पंख-कटे नीड़ों में
 
घर-घर में
मृगछौने हैं कुचले
     यह सपनों की नगरी