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यह स्त्री / अनुभूति गुप्ता

     (एक)
मैले-कुचैले
लिफ़ाफ़ों के
बीच
फँसी निहारती है
पनीली आँखों से
यह स्त्री
सागर के अतल जल को

     (दो)
जाने कब जन्म लिया मैनें
कब टुकड़ों में बँट गई
सलाखों से पुकारा अनगिनत बार
कै़दी के लिबास में ही सिमट गई

अनेक बन्धनों ने बांधा मुझे
वर्षो तक बन्धन में बंधी रही
जाने कब साँसें मिलीं जाने कब घट गई

हर दिशा को
उजले आँचल से झिलमिलाया
उपवन को खुश्बू से महकाया

उजियारा बिखेरते-बिखेरते
खुद डरावने अँधियारों से घिर गई
देखते ही देखते
तिलिस्मी समंदर की
जादुई लहरों से मिल गई।