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यह हिमानिल रात कम्पित / अमरेन्द्र

यह हिमानिल रात कम्पित,
रोम की बारात कम्पित।

पुतलियों की झील में हैं
स्वप्न के सब मीन ओझल,
क्या शिशिर आया कि झुलसे
प्राण के सब पात कोमल;
ठठरियों में बंध गये हैं
छोड़ कर सुर कीर-कोयल,
सूख कर सरसों हैं काँटें
श्याम, पीले पुष्प रोमल !
कौन-सा संदेश देते
कुन्द के सित गात कम्पित।

क्यों न उत्तर की हवा यह
कुछ भी उत्तर दे रही है,
इतनी लम्बी, इतनी शीतल
रात अपनी तो नहीं है;
हो गया भयभीत वन है
देख कर उन्माद गज का,
तैरता निष्तेज हो कर
रूप जल पर है जलज का;
यूं ठिठुरते तारकों से
हो रहा है प्रात कम्पित ।