शैल हो तुम
हैं कसे सब अंग,
विकसित-वय भरे नव-रंग !
प्रत्यूष ने
जब स्वर्ण किरणों से छुए
सुगठित कड़े उन्नत शिखर
प्रति रोम रजताचल
गया सहसा सिहर,
द्रुत स्वेद-मंडित तन
द्रवित मन,
शीर्ष चरणों तक
हुई सद्-संचरित रति-रस लहर !
शैल हो तुम
नेह-निर्झर-धार धारित,
प्राण हरिमा भाव वासित !
एक कण प्रिय नेह का
एक क्षण सुख देह का
मन-कामना
वर दो !
अनावृत पात्रा अन्तस्
भावना भर दो !