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यात्राएँ / शिवप्रसाद जोशी

यात्राएँ कहाँ-कहाँ नहीं ले जातीं
वे इतनी बीहड़ और इतनी स्वप्निल होती हैं
कि उम्र के अल्हड़ छोर पर चली जाती हैं
और थिरकती रहती हैं वहाँ

एक बूढ़ी महिला लौटी है एक प्राचीन शहर से
अपनी बेटी के साथ
और थकान और धूप के निशान उनके शरीर पर अंकित हो गए हैं
चलते चले जाने की भावना
उनके चेहरों पर दमक ले आई है ख़ुशी

माँ-बेटी एक दावत दे रही हैं
मेहमानों को खाना परोसने में व्यस्त हैं
और दोनों का सौंदर्य
देखते ही बनता है

इसी सौंदर्य की तलाश में कहाँ-कहाँ भटकते हैं लोग
जबकि ये खाने की मेज़ पर नुमायाँ है
जैसे ये आकाश है और एक चांद है और एक और चांद है
प्रेम का...

यात्राएँ अपने साथ दुख भी ले जाती हैं
और अवसाद
थकान में डुबोने के लिए
एक अवसाद एक रंग बन जाता है ख़ुशी का
दुख बन जाता है आल्हाद आत्मा का
माँ-बेटी लौटती हैं
चढ़ते चले गए थे एक ऊँचाई पर वे बताती हैं
घाटियों में और बियाबान में और शहर में
क्या याद आया होगा वहाँ
माँ को याद आया होगा कोई क्षण अपने प्रेम का
बेटी एक कसक में भीगी होगी
माँ कहती होगी अरे इतना पसीना
बेटी नहीं कहेगी यह प्यार है माँ
जितना पोंछूंगी उतना भिगोएगा मुझे...

यात्राएँ असल में
भटकना है अंतत: अपने ही भीतर
तलाश है किसी निशान की
क्या होंगे भला वे न होंगे जो प्रेम के निशान