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यात्रा (सात) / शरद बिलौरे

बचपन की छुक-छुक गाड़ी
देखते-देखते हो गई
दैत्याकार और दहाड़ती रेल।
वहाँ मैं
कभी गार्ड का डिब्बा होता था
कभी इंजन
कभी कण्डक्टर
यात्री कभी नहीं था।
मैं
गुड्डे-गुडियाँ फेंक कर
बचपन से बाहर निकला था
छुक-छुक गाड़ी में शामिल होने
और उसमें बैठा-बैठा ही
बड़ा हो गया।