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यात्रा / नवनीत पाण्डे

संबोधन से शुरु करते हुए अपनी यात्रा
तुम पहुंचे मुझ तक
अपने अर्थ से
दे कर मुझे आकार
भर कर प्राण
खड़ा कर दिया अपने ही सामने कि
अब मैं भी करुं शुरु अपनी यात्रा
गढ़ूं अपना आकार
भरुं प्राण शब्दों में
अपने शब्दों से
एक प्रश्न पर कचोटता है निरंतर
क्यों अर्थ से ही होता है?
आरंभ-अंत,सबकुछ
क्यों नहीं करते हम जतन ढूंढने का
किसी कुछ नहीं में ही
कुछ.............