कदम
चल रहे थे, रूक रहे थे ।
ज़िन्दगी को जिंदा रखने के लिए
जब मैं छोड के जा रहा था पाँव के नीचे की जमीन को,
मिट्टी मुझे पकडना चाह रही थी
कूबड़े और चट्टाने मेरा रास्ता रोकना चाह रहे थे ।
उस रात को
वास्तव में कितना ज्यादा विषादमय समय जीना पड़ रहा था,
उन तारों को,
उस चाँदनी को
कैसा अन्धरकारमय परिस्थिति में हँसना पड़ रहा था ।
मुझे लेकिन, चलते रहना था ।
अनदेखा करना था
पत्तो में अटके हुए रात के उन आँसूओं को
उन फूलों की चोट और निरीहता को
टहनियाँ टूट जाने पे हो रहे वृक्षों की पीड़ाओं को ।
और छुपाना था
ख़ुद के आँखों से लौटकर मन में पहुँच जमा हुआ तालाब को भी ।
ख़ुद का भी कभी न समझ पाया हुआ कोई नियम को पालन करना था
अकेला, निर्जन रास्ते पे चलता रहना था ।
जो होना था, वो तो बाद में होना ही था
पर ज़िन्दगीभर
मुझे जिंदा ना रहना था ।
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(नेपाली से कवि स्वयं द्वारा अनूदित)