Last modified on 30 अक्टूबर 2009, at 08:09

यात्री-1 / सियाराम शरण गुप्त

कैसे पैर बढाऊँ मैं?
इस घन गहन विजन के भीतर
मार्ग कहाँ जो जाऊँ मैं?

कुटिल कँटीले झंखाड़ों में
उत्तरीय उड़कर मेरा
उलझ उलझ जाता है, इसको
कहाँ-कहाँ सुलझाऊँ मैं?

कहीं धसी है धरा गर्त में
कहीं चढी है टीलों पर;
मुक्त विहग-सा उड़ जाऊँ जो
पंख कहाँ से लाऊँ मैं?