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यात्री-2 / सियाराम शरण गुप्त

पंख कहाँ से लाऊँ मैं!
अरे, पैर ही क्या कुछ कम हैं!
क्यों न अभी बढ जाऊं मैं?

उत्तरीय का क्या, यह तनु भी
क्षत छिन्न हो जाने दूँ;
इन शत शत काँटों में बिंध कर
लक्क्ष लाभ निज पाऊँ मैं।
गह्वर टीले इधर उधर हैं,
मुझको पथ देने को ही;
अपने इन पदचिन्हों पर ही

नूतन मार्ग बनाऊँ मैं!
कुछ हो, पैर बढाऊँ मैं!