Last modified on 22 सितम्बर 2016, at 02:47

यादें - 1 / नीता पोरवाल

दिन ढले
ज्यादा देर बैठूँ छत पर
तो परली दीवार पर
सुर्ख हो उठते हैं
बरसों पहले ईंट से खिंचे
विकट के तीनों निशान

‘नहीं भैया
ये आउट नहीं माना जाएगा
लाइन के बाहर थी गेंद’
सुनाई दे उठती हैं आवाजें
‘और देख ये रहा शॉट’
 
गेंद आकर
सीधे मेरे माथे से टकराती हैं
छलछला उठती हैं आँखें पीड़ा से
सहलाते हुए माथा
सामने देखती क्या हूँ
कि उभर आया है आसमान के माथे पर
ताज़ी चोट का सुर्ख लाल निशान