इस जगह आकर पुराने दिन
याद फिर से आ रहे हैं
पैठ की सहजात भीड़े
और मेले
खो गए
पूर्वाग्रही से अन्धड़ों में
खा रही है प्राण को दीमक निरन्तर
आज पीपल और तुलसी की जड़ों में
वे खुले गोबर लिपे आँगन
हर पहर बतिया रहे हैं
शोर में डूबे नगर में
उग रहे हैं
अनवरत कँक्रीट के
जंगल असीमित
बढ़ रहा है इन अन्धेरे जंगलों में
हर तरफ़ विकराल दावानल अबाधित
लौट जाने के लिए अनगिन
भाव अब बहुरा रहे हैं
इस तरह अब चल पड़ी
पछुआ हवाएँ
देह-मन दोनों
दरकते जा रहे हैं
जामुनी मुस्कान, आमों की मिठासें
सभ्यतम संकेत ढकते जा रहे हैं
सावनी धन के हज़ारों ऋण
आँख को बिरमा रहे हैं