सूख कर झरा है जो
पात
हवा के साथ
अटका है काँटों की बाड़ में
बेबस
काँटों से हो कर
गुज़र गई है हवा—
सोचता है पत्ता—
क्या कभी हवा को
आती होगी याद
चुभन की
जिस में उस को
छोड़ गई है वह ?
—
4 मई 2009